विदेही मुक्त सतगुरू | अवतरण दिवस : हरे माधव सत्संग- Hindi
।। हरे माधव दयाल की दया ।।
वाणी संत सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी
।। जब जब होये आतम धर्म हानि, सत्त सत्त सांचा रूप प्रगटै ।।
।। आतम ज्योत घट घट जगाए, तैसा सतगुरु पुरुखा प्रगटै ।।
।। नाम महिमा अनाम बढ़ावै, चहुँओर उत्तम विवेक जागै ।।
।। मनमुख गुरुमुख बन बन आवै, ऐसी जुगति सतपुरुख जगावै ।।
आज के सत्संग की रूहानी रब्बी वाणी अनहल मौज के कुल मालिक सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी की अनहदी वाणी है, जिसमें आपजी फरमाते हैं, प्राणीमात्र के परम हितैषी, जीवन उद्धारक, तारणहार, पुण्यदाता, परमत्वमय पूर्ण परम संत हस्ती, अवतार पीर पैगम्बर, प्रभु हरी परमेश्वरीय ईश्वरीय विभु कहलाने वाले, परम उच्चतम कोटि की अलौकिक विभूतियां, समय-समय पर, इस कालखंड में आतम सन्मार्ग बढ़ाने हेतु, हर युग, देश, काल में प्र्रगट होती हैं। जन्म काल से उनके प्रगट होने का परम, चरम लक्ष्य एक होता है, जीवों के मन अंदर की कुरुतियों, घोर अंधकार को दूर करना। मनमति बुराई असुरी वृत्तियों को नष्ट कर, सात्विक वृत्ति एवं न्यारे परम सत्य की ताकत को बढ़ाना और गुरुभक्ति का पथ चलाना।
श्री रामायण में प्रभु हरि के देह धारण कर अवतरण की भरपूर पुष्टि इस तरह से की गई है-
जब जब होय धर्म की हानि, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी
करहि अनीति जाय नाहि वरणी, सीदहिं विप्र धेनु सुर धरणी
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा, हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा
शिवजी माता पार्वती जी से, ऐसे धर्म अवतरण के विषय में कहते हैं, हे पार्वती! श्री भगवान जीवों की रक्षा के लिए समय-समय पर अवतार धारण करके आते हैं।
जैसे भगत प्रहलाद की सम्भाल के लिए विष्णु नरसिंह रूप में प्रगटे, इसी तरह अगोचर अथाह परमेश्वर, स्व हर युग में, हर देश हर जाति में चैतन्य धर्म निष्ठ, पूर्ण पुरुख बनकर अवतार धारण करते हैं, कभी वे निमित्त रूप में आतेे हैं, कभी वे नित्य रूप में प्रगट हो जाते हैं। निमित्त अवतार, परिपूर्ण बल पौरुष से सम्पन्न होते हैं, ये विशेष युग में नव परिवर्तन लाने के लिए अवतरित होते हैं परन्तु नित्य अवतार यानि ‘हरिराया सतगुरु’ धरा जगत में, मन माया के पंजे में फंसे हुए जीवों को कालखंड से उबारने आते हैं। बाहरमुखी जीवों को अंतरमुखी करने, दुखी जीवों को सुखी मंगलकारी रूप बनाने, स्वार्थमय जीवों को, परमार्थ उत्तम परोपकार में लगाने, अमृत नाम का ज्ञान-विज्ञान एवं अंतर में मंद पड़ी हुई, सत्य की ज्योतियों को जगाने, जीव को आतम रूप की पहचान कराने, चहुँओर जगत में मधुर प्रेम का संगीत भरने, कर्तव्य धर्म सबको बढ़चढ़ कर दृढ़ करवाने, सूने जीवन को मंगलमय, कल्याणमय एवं मोक्षमय करने, नित्य अवतार धरा पे आते हैं। वे स्व पारब्रह्म स्वरूप होते हैं, उनमें व परम सनेही प्रभु साहिब में तनिक भेद नहीं होता। वे भक्ति की बड़ाई बढ़ाते हैं, अहंकार का पतन कर, केवल इकमत परम सत्य को प्रबल करते हैं, समत्व अवस्था में रमण करते हैं। वे समता से परिपूर्ण होते हैं, समता की कुशलता से, हर किसी के अंतःकरण में भक्ति का बल बढ़ाते हैं।
जब जब होये आतम धर्म हानि, सत्त सत्त सांचा रूप प्रगटै
आतम ज्योत घट घट जगाए, तैसा सतगुरु पुरुखा प्रगटै
नाम महिमा अनाम बढ़ावै, चहुँओर उत्तम विवेक जागै
हम सभी सौभाग्यशाली जीवात्माऐं हैं, जिन्हें भजन सिमरन के भंडारी हरिराया सतगुरु हाजिरां हुजूर बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की चरण, शरण, सत्संगति प्राप्त हुई है। आपजी की महिमा अकथ ही अकथ है, महिमा भावातीत शब्दातीत है।
पूरण सतगुरु जी के पावन श्री चरण शरण की महिमा, आदि अनादि से गाई गई है, कि जहाँ भी उन्होंने श्रीचरण रखे, वहाँ जंगल से मंगल हो जाते हैं, जहाँ पहले वीरानी थी, अब दिव्य खुशहाली है।
गुरुवाणी में आया-
सा धरती भई हरियावली जिथै मेरा सतगुरु बैठा आए
से जन्त भये हरियावले जिनी मेरा सतगुरु देखिया जाए
धन्न-धन्न पिता धन्न-धन्न कुल, धन्न-धन्न सु जननी जिन गुरु जणिया माय।
धन्न-धन्न गुरु जिन नाम आराधिया आप तरिया, जिनी डिठा तिना लै छडाय।
हर सतगुरु मेलहु दया कर, जन नानक धोवै पांय।
ऐ रब के अंश! हम सब स्वयं गवाह हैं, कि हरिराया सतगुरु सांई ईश्वरशाह साहिब जी की शरण में आने से पहले हमारे मनों की स्थिति क्या थी और आज क्या है। हाजिरां हुजूर सतगुरु महाराज जी की करुणा मेहर से, सर्व सांझी आत्माएं सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान, प्रेमा भक्ति से परमार्थी लाभ उठा रही हैं। गांव शहर कस्बे देश, विदेश की संगतें आंतरिक परमार्थी लाभ उठा रही हैं, सभी के जीवन में आनन्द मंगल छाया है, सर्व संगतें परमारथ की पगडंडी पर अग्रसर हो रही हैं, हम सभी की जीवन शैली को, आध्यात्मिक रूहानी राह से आप हुजूर सांईजन ने जोड़ा है इंसानी जीवन का सही उद्देश्य दिखलाया है, मानुष देही का असल भेद बतलाया है।
हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 190 मेें फरमान आया, पूर्ण संत पुरुख के रूप, नाम बेशक भिन्न-भिन्न रहे हों, पर ध्येय सबका एक ही है, कि जन साधारण को उत्तम पथ दिखाना, भजन सिमरन का भंडार खोलकर आतम रूहों को निज घट में बसे अमृत की ओर ले जाना, चाहे कोई गुरुमुख हो या मनमुख, उनका उद्धार करना।
हरिराया सतगुरु, बिना किसी भेदभाव के सभी पर एक समान दया दृष्टि कर आतम रूह को जगाते हैं।
Certainly, Accomplished True Masters appear differently, and are worshipped by different names but the ultimate purpose of their incarnation remains one; to manifest the divine elixir of Bhajan-Simran and to help the long-lost beings to attain it, be it a Gurumukh or a Manmukh. True Masters bestow Their blessings upon all without any discrimination.
सत्संग वाणी में फरमान आया-
मनमुख गुरुमुख बन बन आवै, ऐसी जुगति सतपुरुख जगावै
मंगल राग सब जन गावै, सहज सहज सत्त खेल खिलावै
समझाते हैं कि हरिराया सतगुरु की संगति से ही जीव के अंतरमन के विकार खाक होते हैं और पवित्र पावन नाम का सांचा रंग चढ़ता है। साधसंगत जी! माधवनगर, जो हरे माधव प्रभु की, सेवा भगति की दिव्य खुशबू से पिरोया हुआ है, जहाँ पर हमारे हरिराया सतगुरुओं ने बेशुमार बाल सुलभ मंजुल लीलायें, रहमतें कर जीवों को परम सत्य का सन्मार्ग पथ दिखाया है, भगत वेष में सतगुरु श्रीचरणों की सेवा भगति कमाई है। यहाँ की पावन भूमि पर, अठारह नवम्बर 1975 को हम सभी के प्यारे, भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी अवतरित हो आए, आपके अवतरण की वेला में चमन के पत्ते पत्ते महकाए, मुस्कुराकर किरण ने नूर बरसाए, बड़ा ही अद्भुत आनन्द चहुँओर बरसने लगा। प्रकृत्ति ने प्रत्येक दिशा में रंग छिटकाया, लहलहाते खेतों ने पक्की फसलों के रूप में, वसुन्धरा को मानो स्वर्णिम स्वर्णिम कर दिया, सब ओर हर्ष ही हर्ष, उल्लास ही उल्लास छा गया।
दसों दिशाओं में सुगन्ध युक्त हवा, प्रेम के तराने गाने लगी, इन्द्रदेव अपनी छटा बिखेरने के लिए प्रसन्नता में झूम उठे, चाँद भी अपनी चाँदनी से रश्मियों को क्षीर्ण पाकर लजाने लगे, स्वर्ग के देवता भी, इस पृथ्वी पर अवतरित होने वाली विभूति को निहारने के लिए लालायित होने लगे, सारा जग इस आलोक से आलोकित हो गया, भक्तों एवं मालिकों के प्यारों के हृदय की पुकारों की सुनवाई हुई, यह कैसा अनूठा रंग, कैसा हृदय में उल्लास का सागर छलक रहा है, आज चहुँ ओर कैसा अनुपम सुनहरा नज़ारा है।
इस शताब्दी के परमार्थ पथ के भास्कर अन्र्तमानस के अंधकार को मिटाने के लिए, माधव नगर की धरा पर, निज ब्रम्ह बाल सुलभ लीलाओं से सरसाने, संसार की सुत्ती रूहों को जगाने, प्रेम के भण्डार, भक्ति परमार्थ के सूर्य, मानव जगत के भाग्य विधाता, सर्व आतम रूहों को सांझा उपदेश देने, जन्मों-जन्मों से फंसी रूहों को उबारने, राह-ए-रूहानी पर जीवों को अग्रसर करने, सेवा सत्संग सिमरन ध्यान के अणखुट भण्डारी, पूरण अमृत नाम के दाता, आप सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी का इस धरा जगत में अवतरण हुआ। मुबारक दिन, अठारह नवम्बर, सन् 1975 ई. 14 कत्ती संवत् 2032 विक्रम कार्तिक मास, गुरुनानक जयंती, मंगलवार को रात्रि 12ः48 मिनट पर इस धरा के भाग्य जगाने, सर्व मांगल्य भाव से सर्व जीवों के उद्धार हेतु आप प्रभु पारब्रम्ह साकार रूप में देह धार निर्भव प्रकाश को ले प्रगटाये। आपजी के दादाजी श्री हुन्दलदास पेसवानी जी, दादी श्रीमति नानकीदेवी पेसवानी जी, पिताश्री ताराचंद पेसवानी जी, माता श्रीमति हेमा देवी पेसवानी जी को यह परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वेद शास्त्रों में ऐसे कुल को धन्य-धन्य, पवित्र, माता-पिता एवं बड़े बुजुर्गों को वड्भागी एवं उस धरामण्डल को पुण्यवन्ती धरा कहा गया जहाँ प्रभु सतगुरु का अवतरण होता है।
जिस वेले सांईजन का अवतरण हुआ, चहुं ओर दिव्य प्रकाश आलोकित हो गया और सभी विस्मादित हो उठे, आस-पास के लोग आपजी के आभामंडल से आकर्षित हो दौड़े-दौड़े, आपजी के अलौकिक दर्शन करने पहुंचने लगे। सभी सुहिणे बाल रूप के दर्शन कर अपने भाग्य को सराहने लगे।
अम्मां नानकी देवी जी आपजी को गोद में ले, सतगुरु सांई नारायणशाह साहिब जी की हुज़ूरी में आईं, गुरु साहिबानों ने दादी माँ को गुप्त रूहानी राज की बातें कहीं एवं सांईजन का नामकरण भी किया। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी, सत्य शक्तियों के मालिक, एक मत की तार और रूहानी दिव्य दृष्टि के द्वारा बालक को निहार कर फरमाए कि यह बालक भारी निर्भव प्रकाश ले प्रगटे हैं, भारी भजन सिमरन की कमाई कर सतगुरु भगति, सतगुरु नाम, सेवा, सत्संग के भंडार सर्व आत्माओं को बक्शेंगे। ये बड़े रहमतों के खेल मौज-लीलाएं और भेद खोलने वाले हैं। गुरु साहिबान जी ने अम्मां जी को, आप जी की परमेश्वरी दिव्यता, रूहानी बादशाहत, शहंशाही मौज एवं आपके अवतरण के उद्देश्य बताते हुए, इसे गुप्त रखने का आदेश फरमाया। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने, आपजी का नाम वही रखा, जो दिव्य प्रकाशी नूर की निगाह से देखा, ईश्वरीय तत्वों से भरपूर, आपजी का नाम ईश्वर रखा।
आदि ग्रन्थ की वाणियों में जुगों जुग पीढ़ी चलन्दी आई के वचन कहे गए-
हर जुगह जुगो जुग जुगह जुगो सद पीढ़ी गुरु चलंदी
जुग जुग पीढ़ी चलै सतगुरु की जिनी गुरुमुख नाम ध्याया
इन गुप्त परम ज्योतियों के भेद, परम ज्योति वाले ही सम्भाल करने और भेद पाने में समरथ हैं। सतगुरु के अंदर कार्य करने वाली पावन पवित्र शक्ति, मंत्र नाम परमेश्वर का है। एक सतगुरु पुरनूर से, दूसरे पुरनूर समरथ सतगुरु का तैयार होने का भाव यह कि परम सत्य के दीपक से परम सत्य के दीपक का गहबी प्रकाशवान होना। पूर्ण कामिल सतगुरु, नाशवन्त देह छोड़ते समय, उसमें समाए अलख, अगम, अमरा ज्योति को फिर दूसरे शरीर देह में रख हस्तांतरित कर देते हैं। बेशक! देह नये से नयी हो सकती है, किन्तु परम ज्योति का सच्चा प्रकाश, अनादि से अनादि है, सनातन है।
साधसंगत जी! बाल्यकाल से, आप हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने अलौकिक शक्ति विस्माद में डालने वाले कार्य भी कर दिखाए, जो आज सब लीलायें प्रकाशमय हैं। आपके नेत्रों में परम प्रकाशी नूर, मस्तक पर आलौकिक दिव्य प्रकाश विद्यमान, मुखमंडल पर मिठड़ी मुस्कान जो जीवों के हृदय को सदा आकर्षित करती। आपजी कई-कई घंटे इकचित्त हो सतगुरु नाम के सिमरन, साटिक ध्यान में लीन रहते। हरे माधव भांगां साखी वचन उपदेश 84 में ज़िक्र आया, आपजी के बाल्यकाल में एक लम्बी उम्र वाले महात्मा जी अक्सर आपको ध्यान में, गहन साधना में मग्न बैठे देखते। जब वे महात्मा सन् 2006 में हरे माधव सत्संग दीवान में आए तो सेवादारों को अपना अनुभव लिपिबद्ध कराया कि मैंने सतगुरु सांईजन के जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल रूप में उनके श्रीचरण कमलों में दिव्य चक्र एवं श्री कर कमलों में रूहानी गुण की रेखाएं देखीं और तब ही मुझे आभास हुआ कि बाल रूप में होते हुए भी ये अवश्य ही पूर्ण जागृत हस्ती हैं, ये निश्चित ही दुनियावी कार्य के वास्ते नहीं अपितु परमार्थी कार्यों के लिए धरा पर आए हैं। आज मैं देख रहा हूँ कि हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी भारी भजन सिमरन के प्रकाश को, परमार्थी भंडार को जन जन पर बरसा रहे है। मैं धन्य हो गया कि ऐसे परम प्रकाशी सतगुरु की जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल सांईजन की लीलायें मैंने देखी।
साधसंगत जी! आपजी घर में सभी बहनों भाईयों को नितनेम से, आंतरिक कीर्तन इकनिष्ठता से कराते, आपजी शर्मीले स्वभाव के कारण, किसी से कम ही बोलते, बस अपनी परमत्व विदेही मुक्त मस्तानी मस्ती में सदा मस्त रहते, शुद्ध मन व भोले भाव, संत स्वभाव के आप धनी, जिस कारण सभी आपको संतजी, भगतजी कहकर बुलाते। जब आपजी बाबा माधवशाह उद्यान में जाकर नाम खुमार में इकनिष्ठ हो बैठते, वहाँ बुजुर्गजन भी आपसे बहुत प्रभावित होते, फिर आप उन बुजुर्गजनों को दिव्य दुनिया के सच्चे रंगों का हाल अपने प्रभुमय भजन मुख से वाणी-वचनों में कह सुनाते।
आपजी व्यापक अनन्य प्रेम की खुमारी में, भजन सेवा करते हुए, मन को थिर कर, सतगुरु प्रेम की परम खुमारी में मगनमय, आठों पहर ना किसी से बोलना, बस अलौकिक मुस्कुराहट मुख पर। स्कूल में जब आप शिक्षा के लिए जाते, उस वक्त क्लासरूम में भी नाम के मस्ताने रंग में भीगे रहते, प्राचार्यजन आपजी को, उस वक्त बाबा माधवशाह साहिब जी के नाम से पुकारते। आप सांईजन हर परीक्षा नोट में गुरु साहिबानों का पवित्र नाम ज़रूर लिखते। काॅपियों में जहाँ नाम और सब्जैक्ट लिखे जाते हैं, वहाँ बड़े गूढ़ दिव्य दुनिया के भाव लिख देते। हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु, जिनके हृदय घट में, रोम-रोम में परम ज्योत प्रगट प्रकाशित है, उनकी भगति के अखंड दीपक से जीवात्माएं अपने घट अंतर को चानण कर सकती हैं। हरिराया सतगुरु के भजन सिमरन का प्रताप देखें, आज अपने गुरु साहिबानों की परिपूरण रूप लीला भी आप ही प्रगट कर रहे हैं। अधिकांश बुजुर्गजन ये हामी भरते हैं, कि उस समय तो हमें यह भान ही नहीं था क्योंकि उस वक्त सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी, स्वांग रचकर, जीवन मुकत प्रकाश, इशारों में बक्श देते लेकिन समझ बूझ, आप हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के सत्संग वचनों में सतगुरु पातशाहियों की मेहर लीलाओं के भेद खोलकर बक्शने से सभी को मिल रही है, जो कि सौ प्रतिशत सत्य, प्रगाढ़ सत्य है, आतम रूहें मेहर लीलाओं को सुन आज जाग रही हैै, सतगुरु भगति को अपने भीतर बढ़ा रही हैं।
बाल्यकाल भगतवेष में आपजी गुरु दरबार में सतगुरु सेवा में आपजी की आतम, अमृत रंगत में भीगी रहती, उसी खुमारी में आपजी जब घर पंहुचते, तो बहनें एवं भाई सभी को साथ बिठाकर, आपजी रब्बी मुख से, परम अमृत का भजन राग गाते और बहन अंजू ढोलक बजाती। फिर आपजी बहनों एवं भाई को, नाम सिमरन की ओर रुख करने को ताकीद इशारे करते। परम खुमारी में आपजी बैठ, सभी से अभ्यास करवाते।
हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! आम इन्सान जितना श्रम नहीं करता, ऐसे कमाई वाले पूरन हरिराया सतगुरु, समस्त मानव समुदाय जीवों को सच्ची भाव भक्ति का सुख देने वास्ते अनंत श्रम करते हैं। आपजी भगतवेस में जब भजन गाते, तो बड़े प्रेम भाव से वह भजन प्रेम, विराट होता जाता, उस भजन अमृत की रसाई समाधि अवस्था में रम जाते। जिसे सुनकर सभी तल्लीनमय, मगन हो जाते। सतगुरु की प्यारी संगतों! यह भारी भजन सिमरन की कमाई रसाई की ऊँची अपार अवस्था है। यह भजन राग, आम राग नहीं होता, कमाई वालों की तार, प्रकट प्रकाशमय परमराया पारब्रम्ह, अकह पुरुख की बेहिसाब रब्बानी वाणीयां, कमाई वाले ही अपने प्रभुमय भजनमुख से गाते हैं, फिर उन्हीं के मुखारबिन्द से वाणीयां चैपाइयां निकलती हैं, धर्म सद्ग्रंथ इन्हीं की वाणीयों से ही बनते हैं।
सत्संग शबद वाणी में, हरिराया सतगुरु की महिमा यू बयां की गई, जी आगे-
।। मंगल राग सब जन गावै, सहज सहज सत्त खेल खिलावै।।
।। धरम की जय जय, अधर्म हारे, ऐसी लीला स्वांग कर वरतायै।।
।। सतसंग सेवा भजन आनंद, बहे त्रिवेणी तब संतों ।।
।। जय जय होये अलख संतमते की, सतगुरु प्रगटै संतों ।।
वक्त के हरिराया सतगुरु, सेवा, सत्संग, सिमरन ध्यान की त्रिवेणी बहाते हैं, जो वाणी में फरमान आया-
सतसंग सेवा भजन आनंद, बहे त्रिवेणी तब संतों
आप ब्रम्ह बाल सांईजन, सतगुरु शबद के अभ्यास में गहरी रूचि, असीम प्रेम धरते। चैबीस घण्टे बंदगी में रहने पर भी आंतरिक जिज्ञासा बनी रहती। अपने गुरु साहिबानों की तरह, नित्य नई युक्तियां सोचते एवं अविष्कृत करते जिससे कि चित्त की समस्त वृत्तियों, शारीरिक इंद्रिय आसक्तियों से रहित होकर, भजन सिमरन ध्यान उनमुन में, अडोल एकाग्रता भरपूर रहे।
आप जाग्रत प्रगट ब्रम्ह बाल सांईजन दिव्य आलौकिक मंडलों में ही रमण करते और बाल अवस्था में ही दिव्य मंडलों की झंकारें अदृश्य बहाते रहते। आप भजन सिमरन के भंडारी, स्थूल, सूक्ष्म, कारण मंडल के आगे भी परम प्रकाश में लवलीन भरपूर रहते, बाकी बाहरी जगत में वर्तण करना केवल लेष मात्र निमित्त ही।
आप ब्रम्ह बाल सांईजन जी को आम बच्चों की तरह लुभावनी वस्तुओं की चाहना न रहती, अलस्ती खुमारी में रमे रहते। बाल्यवस्था से ही आपजी नितनियम से सतगुरु श्रीचरणों की सेवा में भरपूर समय बिताते, सेवा का खुमार आपजी पर परिपूर्ण छाया रहता। सेवा का कार्य पूरा कर लेने के बाद, आपजी समय और अपने तन की परवाह न कर, सतगुरु नाम बंदगी के लिए, किसी निर्जन स्थान पर चले जाया करते और वहाँ बैठ आपजी थिर समरथ तख्त पर विराट धरा को बिछौना कर मन आतम पारब्रम्ह में इकमय एकोमय हो जाते। आपजी पर अपने गुरु साहिबानों की परिपूर्ण दिव्य छाया, हर पल अदृश्यमय रूप से छायी रहती। हर पल सेवा भक्ति, नाम बंदगी, सतगुरु प्रेम में व्यतीत होता जिसमें आप को अपनी देह की सुध-बुध ही न रहती। अम्मां नानकी देवी जी और गुरुमाता हेमादेवी जी आपजी के स्वभाव से वाकिफ रहते कि आप बाबाजी कुछ न बोलकर, अक्सर चैतन्य मौन में मस्त रहते हैं। कभी कोई शारीरिक तकलीफ भी होती, तो सतगुरु के विराट भाणे में भीगे रहते, मुख से कम ही कहते, तभी आपजी की महिमा में एक प्रेमी ने यूं कह दिया-
प्रेम भक्ति के बन उन्नायक जन जन को निहाल करें
आकुल व्याकुल विरह दरद के, हृदयों में आनंद भरें
सौम्य मनोरम निज सुष्मा से, त्रिभुवन के भ्रम ताप हरें
सुख शांति की दात पाकर, सकल कलेष स्वयमेव जरें
आप हरिराया सतगुरु साहिबान जी, सतगुरु शबद के अंतरमुखी परम आतम अवस्था में रमण करते पर स्वयं को छिपाकर चलते। संगतों! ऐसी अवस्था में रमण करने वाले, अपने भजन हाथों से किसी को माटी या भस्म देते हैं, तो वह उपचार बन जाता है। आप साहिबान जी को संसार की मोहिनी माया की झिलमिल, बचपन से ही आकर्षित नहीं कर पाई, फिर क्यों न वही माया, आप मालिक-ए-कुल जी की चरण रेणु बनने को आतुर होती? आपको सर्वसाधारण बालकों की तरह रहना, खेलना पसंद न था, बाल्यकाल से ही आपजी अपनी मस्ती में मस्त रहते एवं अंतरमुखी नाम बंदगी में रमे रहते। ‘एकांत’ आपका प्रिय बंधु बालपन से है। प्रकृति जिनकी चरण रज छू लेने को आतुर हो, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ जिनकी चरण छांव का आश्रय प्राप्त करना चाहती हों, उनके लिए तो यह नाशवान संसार मिथ्या मात्र है।
यह सत्य है कि जब-जब भी दिव्य महान विभूतियाँ, महान रूहानी कार्य तथा परमार्थी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसार में आते हैं, तो उनकी व्यक्तिगत महानता, रूहानी ऐश्वर्य के विशेष दिव्य लक्षण तथा चिन्ह उनके बाल्यकाल की लीलाओं से ही, स्पष्ट होने लगते हैं।
हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! संसार जगत में संतमत की अलख, पूरन सतगुरु प्रकाश से ही जगमगाती है-
जय जय होये अलख संतमते की, सतगुरु प्रगटै संतों
एक तरफ जहां झोपड़ पट्टी में रहने वाले संत कबीर जी, सतगुरु शबद के जाप से अमरता को प्राप्त हुए और आज भी पूज्यनीय हैं वहीं विश्व विजेता बनने का ख्वाब देखने वाला सिकंदर खाली हाथ गया। शबरी जो सादी सी झोपड़ी में रहती पर आज भी पूज्यनीय है। सतगुरु की शरण, शुद्ध प्रेम और सतगुरु शबद के जाप से संत रविदास, भगत नामदेव आदि पूज्य श्रेणी में आते हैं। संगतों! कमाई वालों का जन्म, आतम रूहों के उद्धार वास्ते होता आया है। श्रीमद् भगवत गीता में कहा गया-
अजोऽपि सअन्ययात्मा भूतनामी श्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्य आत्ममायया।
अजः याने अजन्मा, अव्यात्मा याने अविनाशी स्वरूप, भूतनाम् याने सम्पूर्ण प्राणियों का, ईश्वरः याने ईश्वर है, सन् याने होते हुए भी, स्वाम याने अपनी, आत्ममायया याने अपनी योग माया से, सम्भवामि याने प्रगट होता है।
हरे माधव यर्थाथ संतमत वचन उपदेश 248 में सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमाते हैं, सम्पूर्ण प्राणि मात्र के एक मात्र परमेश्वर, महान शासक रहते हुए भी अवतार के समय छोटे से बालक बन आते हैं, जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल रूप को धारण करते हैं।
प्रगट ब्रम्ह बाल्य रूप में वे सदैव ईश्वरीय भाव (शासक तत्व) से भरपूर रहते हैं, चैतन्य धर्म के शाश्वत सूर्य रूप बनकर प्रगट होते हैं, साधारण व्यक्ति जिस स्तर पर रहता है, उसी स्तर पर आकर वे स्वांग लीलाऐं करते हैं, बिल्कुल भोले-भाले साधारण बालक की तरह कौतुक करते हैं, ऐसे ऊँचे परम तत्व के प्रभाव को जानने वाले ज्ञानी महात्मा लोग तो उनकी लीलाऐं, तत्व की जुगति दर्शन दीद कर मस्त रहते हैं, देवी देवा भी रूप बदल यह बाल लीलाऐं देखने धरा पर आते हैं, आम संसार की बुद्धि से यह परे की बात है, उस स्तर पर ज्ञानियों का ज्ञान नहीं चलता। उस स्तर पर ज्ञानियों का ज्ञान नहीं चलता। उनकी साधारण अज्ञ, बालक की तरह भोली भाली लीला, प्रेमी रूहों की भक्ति बढ़ाती है, जो आतम को बड़ी विचित्र एवं मीठी लगती है।
When the Almighty Supreme Lord incarnates in the form of a human, even in the infant state, he is full of spiritual might and light. He manifests with the radiance of the sun of Chaitanya- Dharam. Living among the mortal beings, He performs extraordinary Leelas. God and Goddesses come down in different forms just to witness these divine spectacles. Understanding the mystery of these spectacles is way beyond human wits. True Master’s innocence, and His divine spectacles strengthen the devotion in disciples.
हरे माधव भांगा साखी वचन उपदेश 103 में ज़िक्र आया, हाजिरां हुजूर सतगुरु सांईजन के ब्रम्ह बाल अवस्था की अलौकिक भगवतमय लीला, आपजी के बाल सखा ने सुनाई कि एक दिन हम सभी मित्र-सखा मैदान में खेल रहे थे और आपजी कुछ दूर एकांत में जाकर बैठ गए। सांईजन ने पास ही पड़ी छोटी-मोटी लकड़ियों को उठाकर आग जला ली, फिर उसे बुझा दिया। फिर अपने नन्हें कोमल हाथों से लकड़ियों को उठाकर धरती पर गिरा दिया और मुँह से फूंक मारने लगे। आपजी के समीप पानी का पात्र रखा था, उसे उठाकर पानी को बहा दिया। फिर आपजी पत्थर और माटी उठा, दूर फेंक रहे और धीमी सी आवाज़ में कुछ गहरे बोल कह रहे। मुख पर तेजोमय चैतन्य मुस्कुराहट, अचल ज्ञान की गंगा बह रही। सांईजन चैतन्य गहन मौज में, बाल सुलभ मुस्कराहट में यह खेल पुनः-पुनः करते। साधसंगत जी, इन लीलाओं का भेद खुद सतगुरु जाननहार जानते हैं, बड़े ऊँचे गहबी अनन्त राज की बातें हैं। कालखण्ड में जीव उद्धार हेतु बढ़ते हुए समय चक्र के साथ इन सब लीलाओं का भेद प्रकट प्रकाशमय होता है।
साधसंगत जी! कुछ दूर, एक भभूतधारी, जटाधारी योगी बैठा था और बहुत देर से सांईजन की इस ब्रम्हबाल लीला को देख रहा था, वह योगी भारी उम्र वाला था, सिद्धियां भी उसके पास अनेकानेक थीं, योगी जिस आसन पर बैठा था, वह मृग के छाल का आसन था। योगी ऐेसे कौतुक देख आपजी के पास आया। आप ब्रम्ह बाल सांईजन ने उन्हें देख कहा, बैठिये योगी जी। वह योगी भी वहीं ज़मीन पर बैठ गया। योगी कहने लगा, मैं बहुत देर से ये माटी का खेल देख रहा हूँ, पहले तो मेरे अन्दर ये भाव आया कि शायद आप छोटे से बालक हैं, खेल रहे होंगे लेकिन फिर मुझे आपकी आँखों में ज्ञान की गहबी अमृत खुमारी दिखी जो मुझे आपकी ओर खींचे जा रही थी। जब मैंने अंतर समाधिस्थ हो दिव्य नेत्रों से देखा, तो आपके आलोकित विराट गहन परमत्वमय स्वरूप के दर्शन किए और अपनी आत्मा की आवाज़ सुनी तो समझ आया कि छोटे बाल रूप में अवश्य ही कोई बड़ी दिव्य चैतन्य लीला है। मैं पहले आपकी देह, बाल रूप को देख रहा था, इसलिए मुझे आप साधारण प्रतीत हुए, किन्तु मुझे अब आपके मुखमंडल पर जीवनमुक्त विदेही नूर की झलक मिल रही है। हे भगवतमय ब्रम्ह बाल रूप नंदन! ये जो आप मंजुल विमोहक लीला खेल कर रहे थे, मुझे इसे समझने और अनुभव करने की जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी है। श्रीचरणों में दण्डवत हो नमन, कर योगी ने हथजोड़ याचना की, कृपा कर इसका भेद बताएं, जिससे मैं भी अपने तप.को गाढ़ा कर सकूं। आप गुरु महाराज जी ने ब्रम्ह बाल भगवतमयी मुस्कुराहट भरे स्वर में कहा, इन खेलों को छोड़िये योगी जी! आप बड़े हैं, ये छोटे से खेल, आपकी समझ में नहीं आयेंगे। योगी जी हथ जोड़ नम्र भाव से कहने लगे, छोटा मैं हूँ, आप बड़े हैं। हे ब्रम्ह बाल भगवन! देही के स्तर से क्या होता है, यथार्थ मंजुल विमोहक खेल तो आप कर रहे थे। हे अजन्मे ठाकुर! विदेही मुक्त, जीवन मुक्त पुरुख, दया मेहर कर हमें कुछ कण ही, भेद बक्शे, अपने ब्रम्ह बाल प्रभुमय मुख वचनों से कृतार्थ करें।
तब सांईजन जी के बाल प्रभुमय भजन मुख से यह रब्बी वाणी बह उठी-
सतगुरू मोहे ले गयो, इक अजब देश इक न्यारा आतम देश
काल करम न, धरम न तहां, नाहीं रंक राजा तहां
नाहीं आद अन्त न अनन्त, न अहंकारा न निरंकारा
तहां व्यापै बहु अनन्त सुन्न तारा
नाहीं साच झूठ के मेले तहां, नाहीं रुद्र महेशा के चेले तहां
नाहीं मन बुद्धि इन्द्र के चाला, जग में मैं वरतूँ अद्वैत चाला
तन चेतन ब्रम्ह हिडोला न धारे, नाहीं राम वशिष्ठ को संवाद विचारे
ऐसा शबद तत्व सार शबद चिताया, तिस शबद की अनन्त दल माया
दास ईश्वर ऐसे चमन की बात कहे
वेदन कथ कथ अनन्त कहा, हरे माधव पुरख छाया
आतम निज प्रकाश की बात कहे
होये जे पूरा गुरू शिष्य चेला, सोई जाने मस्त हस्त हमरी
आप जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल सांईजन ने उस योगी को अगम लोक, जन्म-मरण के पार की, आदि-अनन्त के पार बेहद गहन गहरी निज अनुभवी बात समझाई, जो गूढ़ है, जिसका सरल रूप में खुलासा, संगतों भगतों के लिए आपजी ने फरमाया, योगी जी! मैं पानी फेंक कर यह देख रहा था कि वह परम सत्य बह रहा है कि नहीं क्योकि मैं अन्दर, बाहर एक प्रगाढ़ सत्य की खुमारी में मस्त, खुद को ही भाँप रहा था। हमने जो पत्थर और माटी उठा कर फेंके, उसका भावार्थ यह, कि जिस परम सत्य की खुमारी का अमृत, अजन्मी चमक में बह रहा है, उसमें पत्थर शस्त्र के द्वारा छेद हो रहा है, कि नहीं या वह मैला हो रहा है कि नहीं, किन्तु उस अजन्मी चमक में किंचित मात्र भी फरक नहीं पड़ रहा है, आतम निज प्रकाश जिसकी अखण्डता कभी खण्डित नहीं होती, यह सारा जगत उसकी परम प्रकाशी चिन्मय विनोद लीला है, वह विशुद्ध परम हकीकत है। योगी जी, भजन सिमरन की कमाई वाले, पूर्ण विदेही जीवन मुक्त पुरुख जगत में रहते हुए भी अपने अंतर में परम सत्सय में अखण्ड थिर अखंड एकत्व में परमत्व के आनंद में सदा रहते हैं।
ब्रम्ह बाल रूप सांईजन ने आगे फरमाया, योगी जी! हमने जो अग्नि जलाई, उसके पहले भी परम सत्य को देख रहे थे, अग्नि जला के बुझाने के बाद भी उस परम सत्य का वह अखण्ड स्तर कायम था, यानि उसे आग्नि तनिक मात्र जला सड़ा, खाक नहीं कर सकी, फिर जब हम फूँक मार रहे थे, उसमें यह देख रहे थे, वह स्थित सत्य हिल रहा है कि नहीं किन्तु वह किन्चित नहीं हिला अर्थात् हवा तूफां उसे नहीं उड़ा सकीं क्योंकि वह हवाओं के पहले भी था और बाद में भी। पहाड़ों और पत्थरों में, इस परम सत्य की खोज नहीं हो सकती और वहाँ वह मिलेगा भी नहीं।
सांईजन ने आगे कहा, जिस तरह धनवान धन कमाकर उसे देख खुश होता है, दुनियावी पद सत्ता वाला, दुनियावी पद के स्तर को पाकर खुश हो जाता है, इसी तरह जो भजन सिमरन की कमाई वाले, जिनकी आतम और रोम-रोम में प्रकट है, जो अन्दरुनी समाधि के स्तर के आखिरी पड़ाव में स्थित हो गए, जहाँ आतम परमातम की हदें खत्म होती हैं, वे वहाँ अखण्ड रबियत की खुमारी में रंगे बैठे हैं और परम आनन्दित होते हैं। जिस तरह छोटे से बच्चे स्कूल काॅलेजों में अच्छे नम्बरों में आते हैं, मैरिट में आते हैं, तो वह अपनी अंक सूची बड़ों को, स्नेहजनों को दिखा खुश होते हैं, मिठाईयां बांटते हैं। इसी तरह कमाई वाले सदैव उस परम मुस्कराहट में आनंदित रहते हैं। योगी जी! हम भी तो वही कर रहे हैं, नाश का क्या मोह लगा रखना।
वह योगी आपजी को चरणवंदन नमन कर कहने लगा, ऐ अजन्मे बाल ब्रम्ह ठाकुर! मुझे जिस परम सत्य की खोज थी, जिसे पाने के लिए मैंने भारी तप किए, वेद शास्त्रों का अध्ययन किया, पर मुझे नहीं मिला, आज आपजी की मंजुल विमोहक, जीवन मुक्त, विदेही मुक्त, आतम परमत्व की प्रकाशी लीला देख एवं उस लीला का भेद पाकर मुझे परम तृप्ति मिल गई, मैंने आज जीवन का सार, परम अमृत पा लिया। मैं धन्य हो गया, मैं धन्य हो गया। वह श्रीमद् भागवत गीता के संस्कृत श्लोक कहने लगा-
अन्तवन्त इमें देहा नित्यस्योक्ताः शीरीरिणः।
अनाशिनोउप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।
साधसंगत जी! भगवान श्री कृष्णचंद्र जी ने भी इसी स्तर की बात कही थी, श्री गुरु नानकदेव जी ने भी इसी परम सत्य के स्तर की बात पौड़ियों में कही, अजूनी रूप है, वे अजूनी स्वरूप हैं।
साधसंगत जी! यह सत्य है कि आप हुजूर सतगुरु महाराज जी की सारी बाल ब्रम्ह लीलाओं का वर्णन करना या अलौकिक चरित्रों को शाब्दिक सीमा में बांधना सम्भव नहीं है, जिन-जिन नेक जीवों ने ऐसी जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल भगवतमय सुहणी छवि को निहारा है, वे बड़े वड्भागी हैं, वे बड़े धनभागी हैं। संत कबीर जी ने कहा-
सब धरती कागद करूं, लेखनी सब बनराय
सात समुद्र की मसी करूं, गुरु गुन लिखा न जाइ
पूरे जागृत ब्रम्ह प्रगट सतगुरु की बड़ी बढाई महिमा स्तुति कथी नहीं जा सकती-
गुरु गुन लिखा न जाइ
फिर आगे कहा-
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देख मन माहिं
कहे कबीर जग हरि बिखे, हरि हरिजन माहिं
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव
भाव यह कि परमात्मा हरी से भी ऊँचा स्थान हरिराया सतगुरु जन का है। ध्यान का मूल रूप हरिराया सतगुरु हैं, निर्मल मन से सदैव हरिराया सतगुरु का ध्यान करना चाहिये, उनके श्रीचरणों की उस्तत आराधना करनी चाहिये। हरिराया सतगुरु के प्रभुमय भजन मुख से फरमाई सुधामय अमृतवाणी को ‘सत्यनाम’ समझकर प्रेमभाव से श्रवण करना चाहिए। हरिराया सतगुरु से अमुक होकर किसी भी मार्ग का अनुसरण करना जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ करना ही है।
हरिराया सतगुरु का हमारे बीच सर्गुण रूप में प्रकाशमय होना ऊँचे सौभाग्य की बात है, भजन सिमरन के परिपूर्ण भण्डारी आप मालिकां जी, खुद आदर्श वाणी लिपी के द्वारा, जीव जगत को आतमज्ञान की सोझी दे रहे हैं।
वह योगी, अक्टूबर 2011 में वर्सी पर्व पर आया, दूर संगत में बैठ, हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पावन दर्शन कर आनन्दित हो समाधि में जुड़ गया। फिर एक सेवक को बुलाकर अपना अनुभव कहा, हजारों लाखों लोग आज आंतरिक परमत्व, गहबी परमार्थी लाभ उठा रहे हैं, गुरुप्रसादी मेहर पा रहे हैं लेकिन ऐसे उंचे परम प्रसाद को मैंने आज से कई साल पहले, जब गुरु बाबाजी जागृत प्रगट ब्रम्ह बाल अवस्था में अनंद विनोद लीलाऐं करते, तब उनकी मेहर से असल परम प्रसाद पाया, तभी से मुझे आभास हो गया था कि ये तो जीवन मुक्त, विदेही नूर से ओतप्रोत हैं जो बाल्यकाल से ही अजन्में नूर खिला रहे हैं एवं स्थित प्रज्ञावान स्तर के भेद भी कह रहे हैं।
सत्संग शबद वाणी में फरमान आया, जी आगे-
।। जगमग जग में घर आंगन में, आतम मंगल भाग्य जगे।।
।। जो सतगुरु सत्त रूप प्रगटे, जो सतगुरु सत्त रूप प्रगटे।।
।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, अनहद धुर से उठे सत्त रूप की ज्योत धारा।।
।। धरा रूप जगत में, सत्य हक की करे महिमा बड़ बढ़ाई।।
कुल मालिक पुरनूर शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी फरमा रहे हैं, पूरण सतगुरु भजन सिमरन के भंडार में रच बस कर न्यारे प्रभुमय, जीवन मुक्त, विदेही मुक्त, परमत्वमय रूप हो गए हैं। कमाई वाले सतगुरु प्रगट होकर, खुद कल्पवृक्ष बनकर जीवों को सच्चा प्रेम, सच्चा भाव, सच्ची श्रद्धा देकर, मन को शुद्ध करने का मूल मंत्र, भजन-ध्यान देकर आत्माओं को निजघर ले जाने आते हैं पर स्वयं को छिपाकर वर्तण करते हैं। जब हरे माधव प्रभु का हुकुम हुआ, तो अपनी प्रभुताई पहचान स्व जगजाहिर करते हैं, वरना हम आम संसारी जीवों में वह बुद्धि विवेक कहाँ कि सर्गुण हरिराया सतगुरु की पहचान कर सकें।
शहंशाह सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी से एक ज्ञानी ने विनय विनती की, हे समरथ रसाई वाले सतगुरु! आपजी जीव जगत में रूप मलोखड़ी वेस धार स्वांग रच कौतुक लीलायें करते हैं, जीवों का उद्धार करते हैं पर संसार में गुरु सतगुरुओं की तादाद भारी है, आतम ब्रम्हज्ञान की भारी चर्चा है, अब हम जीव यह कैसे जानें, कौन सा पूरण सतगुरु परम दुनिया से आया है?
आप शहंशाह जी मुस्कुरा कर फरमाए, वचन तो साचे पूछ रहे हो ज्ञानी, तो सुनो, जो हमेशा परम प्रभु का विधान संविधान है एक ही बात सर्वोपरि है कि जिनके पावन श्रीमुख से हरे माधव परम प्रभु की अमृत रब्बी, धुर की वाणी बहे, प्रभु का हुकुम वचन वाणी से कहें, वे वाणी के जनक प्रधान होते हैं, वो ही पूरण सतगुरु परम दुनिया से आए हैं, वो ही जीव आतम की सारी धुंध अज्ञान को खतम कर परम एको रोशनी की रसाई का बल बक्शते हैं, उन्हीं की चरण-शरण में समपर्ण भाव से अपना सारा अहंकार दे देना, प्रेमा भगति शरण संगति को कसकर प्रेम प्रीत से थाम लेना।
संगतो! कलिकाल में भजन सिमरन के भण्डारी पूरण सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी हरे माधव प्रभु के हुकुम से अपने पावन प्रभुमय मुख से रब्बी वाणीयाँ, वचन फरमा कर, मलोखड़ी वेस धार, अनुपम लीलाओं द्वारा सर्व सांझी रूहों को परमत्व प्रकाश का फरमान दे रहे हैं। हरे माधव अचल अखण्ड पथ की नींव रखकर यथार्थ उपदेश, अमरता की ओर जाने वाला अमरा पथ जीवजगत को दे रहे हैं। संगतां जी! उन प्रभुमय वाणी वचनों से सद्ग्रंथ, शास्त्र बनते हैं, सर्व कल्याण के लिए। हम अपने हरिराया सतगुरु की प्रभुमय वाणियांे को नित्य श्रवण कर अपनी सोई आतम को जगाएं।
सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 28 में फरमाया, जीवन मुक्त, विदेही मुक्त सतगुरु के इक कण की महिमा लीला को कहना असंभव ही असंभव है। वे किरपावश, करुणावश आपै आप ही प्रगट करते हैं।
ऐसे जीवन मुक्त सतगुरु की महिमा को कहना नारद-शारद की वाणी से भी परे की बात है। बुद्धि के देवता बृहस्पति भी जीवन मुक्त, विदेही मुक्त पुरुखों के भावों को या महिमा को कह नहीं पाते, उनकी बुद्धि भी पार नहीं पाती। 33 करोड़ देवी देवा भी जीवन मुक्त, विदेही मुक्त पुरुखों की अचल सुख की महिमा को नहीं जान पाते, इसलिए इंसानी रूप में आ ऐसे ताकतवर परमत्वमय पुरुखों से कुछ वचन भेद लेकर जाते हैं, बाकी विराट को आंकना तो असंभव ही है, यूं कहें कि भला वामन विराट को कैसे आंक सकता है, भला गागर में पूरा सागर कैसे समा सकता है। ऐसी ही महिमा अपार है जीवन मुक्त, विदेही मुक्त परमत्व हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी की।
साधसंगत जी! आज परमत्वमय सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के पावन अवतरण दिवस पर हम सब मिलकर अरदास विनती पुकार साफ सच्चे दिल से भगत वत्सल साहिब जी के चरण कमलों में करें, हेभजन सिमरन के भंडारी सतगुरु! हे हरे माधव सतगुरु प्रभु जीयो! हमें वह आँख बक्श, वह निर्मल बुद्धि बक्श जिससे तेरे साचे आलोकित परमत्व रूप को हम अपने अंतर में प्रगट कर सकें, हमें अपनी बंदगी भक्ति का सलीका बक्शो, दया करो, मेरे सतगुरु जी, मेरे हरे माधव बाबाजी।
।। कहे माधवशाह सुनहो संतों, अनहद धुर से उठे सत्त रूप की ज्योत धारा।।
।। धरा रूप जगत में, सत्य हक की करे महिमा बड़ बड़ाई।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव