प्रेमाभक्ति हरिराया सतगुरु की : हरे माधव सत्संग- Hindi
|| हरे माधव दयाल की दया ||
।। लगन लगी है तुमसे मेरी, अब क्या करें माधव जीओ ।।
।। हमरी सुनो मेरे प्यारे, विरह अगन बहुत जलावै ।।
।। मोहे दिन और रात नाहीं, निंद भूख नहीं लागै ।।
परमत्वमय भजन सिमरन के भंडारी सतगुरु महाराज की शरण ओट पनाह में बैठी संगतों! आप सभी को सतगुरु पर्व की अनंतानंत बधाईयां जी।
हरे माधव प्रगट हरिराया रूप सच्चेपातशाह जी के श्री चरण कमलों में निह प्यार, श्रद्धा भक्ति हम भगतों की स्वीकार होवे। हुजूर साहिबान जी के श्री चरणों में यही अरदास विनय कि हम संगतों, सेवकों, ऐबदारों, भुलणहार जीवों को अपनी पवित्र पावन शरण का आसरा, इक टिक भरोसा बक्शें, प्रेमा भक्ति की दात, श्री चरणों की लगन बक्शें। हरे माधव पारब्रम्ह हरिराया सतगुरु की नन्ही रूहों आत्माओं की अनन्य प्रेम और अनन्य प्रीत की डोरी आपजी के श्री चरण कमलों से अटूट से अटूट जुड़ी रहे। बस इतना ही सच्चेपातशाह, जैसी प्रीत चकोर की चाँद से, ऐसी प्रीत हमें तू देवो। हे गरीब निवाज! जैसे मीरा की प्रीत, शबरी की प्रेम दर्शन की आस, विदुर का भाव, बस इतनी सी इल्तिज़ां भाव प्रीत के टूटे-फूटे शब्दों से बस पुकार है, हमें प्रेमा भक्ति का, प्रीत भाव का घाव बक्श।
साधसंगत जी! सूर्य की रोशनी का हम आव्हान क्यों करते हैं? सूर्य की लालिमा का हम सभी को, फूल-पत्तों, डालियों को क्यों इंतजार रहता है? क्योंकि सूर्य के उगने से सभी का जीवन उग उठता है। ऐसे ही जब भजन सिमरन की ज्योत, हरिराया सतगुरु प्रगट हुए तो भगति विवेक, दिव्य विवेक, मुक्ति विवेक बह उठा, जीव जाग उठा। यही सतगुरु पर्व का महातम है।
संगतां जी! स्व विचार करें, पहले हम क्या थे, आज हम क्या हैं? पहले क्या खोया था और अब हम क्या पा रहे हैं? एक अजायब प्रकाशी ज्योत प्रगट हुई, भजन सिमरन के भंडारी हरिराया सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के रूप में जो, जीव कल्याण हेतु अनन्य दया-मेहर, भक्ति, सेवा, अमृतवचन द्वारा सर्व आत्माओं को बक्श रहें हैं। ऐसी परम ज्योत की शरण में रहकर उनके परम प्रकाश को अपने जीवन में ढालना। यही सतगुरु पर्व का महातम है।
हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! महान महानतम सतगुरु पर्व के पवित्र पावन दिवस पर आज के सत्संग की सतगुरु श्री चरणों के अनन्य प्रेम, विरह, लगन से ओत-प्रोत ऊँची अमृत वचन वाणी, शहंशाह सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी द्वारा फरमाई है, जिसके माध्यम से आप सतगुरु बाबाजी, उन आत्मओं का जो सतगुरु प्रेम, विरह, लगन, प्रीत की डोर में इस कदर बंधी है कि हरिराया सतगुरु बिन उसकी जिन्दगी का कोई मकसद ही नहीं। सतगुरु श्री चरणों की लगन, विरह, प्रेमा भक्ति की महानतम महिमा को वाणी वचनों में पिरोया है, सतगुरु लगन की सार सच्ची महिमा हरे माधव यथार्थ गुरुमत में भूरी-भूरी कथी गई है। जिन पावन नेक आत्माओं ने वक्त के भजन सिमरन की कमाई वाले सतगुरु से बेपनाह मोहब्बत की, चरण प्रीत कस-कस कर की, फिर उन्होंने ही, उस अखण्ड अकाल मूरत हरिराया, अकह हरे माधव पारब्रम्ह के धाम में पहुँचकर, अमृत आनन्द एको विसाल का गौरव पाया और उन्हीं में लीन हुई।
सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने इश्क-ए-मुर्शिद सतगुरु की राह में विद्वता को न्यौछावर किया। गुरु साहिबान जी अपने पारब्रम्ह सतगुरु में सच्चा रूहानी इश्क रख, प्रेम प्रीत लगन धार कर कामिल-ओ-कामिल मुर्शिद सतगुरु का रूप ही हो गए। यह सारी बड़ाई सच्चे प्रेम की है, और इस राह में तड़प तीव्रता वाला ऊँचा भाव चाहिए। आपजी विरह प्रेम की अग्नि में जलकर, शहंशाह सतगुरु में निष्ठा, अटल विश्वास को क्षण भर भी डोलने नहीं दिया।
गुरु साहिबान जी निर्मल वाणी में सच्चे भगत प्रेमी के हृदय की उसी विरह तड़पन वेदना को प्रगट कर रहे हैं।
लगन लगी है तुमसे मेरी, अब क्या करें माधव जीओ
गुरु साहिबान जी समझाते हैं, ऐ प्यारों! जिनके अंदर अपने साहिब बाबल प्रियतम से मिलने की, बड़ी तीव्र तड़प सुलग उठी है, उस विरही रूह की, हरे माधव मालिक दाता से प्रीत, कोई नई बात नहीं है, सनातन आदि काल से इस प्रेम की कथा-गाथा खुली किताब की तरह है कहा-
हमरी सुनो मेरे प्यारे, विरह अगन बहुत जलावै
प्रियतम सतगुरु से वियोग विरह की आग शिष्य मुरीद के तन-मन को सुलगाती रहती है, तपाती है और जिगर में यादों का समुद्र उमड़ पड़ता है, जिससे हृदय में सतगुरु प्रेम का अनोखा मिठड़ा-मिठड़ा दर्द उठ पड़ता है और प्रेम विरह की लहर बढ़ती ही जाती है। जैसा गुरु साहिबान जी ने अपनी वाणी में फरमाया-
लगन लगी है तुमसे मेरी, अब क्या करें माधव जी ओ
हमरी सुनो मेरे प्यारे, विरह अगन बहुत जलावै
हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 87 में हाजिरां हुजूर सांईजन फरमाते हैं, ऐ प्यारों! हरिराया सतगुरु का प्रेम जीवों को एको सार हक़ीकत समझाता है, उसी प्रेम में जीना और फिर उसी प्रेम में मिल जाना सिखाता है। हरे माधव यथार्थ गुरुमत अनन्य प्रेम, अनन्य इश्क प्रीत, गुरुभक्ति का ‘अलबेला मारग’ है। इस कड़ी में आप जी ने फरमाया कि हरे माधव प्रभु की जात प्रेम है और हरे माधव प्रभु की अंशी आत्मा की जात भी प्रेम है, उस हरे माधव प्रभु ने जीव के अंदर, अपने गुण भर रखे हैं, शिष्य भगत साधक जब ऐसी ऊँची पूरण संगति से जुड़ता है, तब उसे सतगुरु प्रेम-विरह का घाव लग जाता है और वह हरे माधव अकह प्रभु में लीन हो जाता है, फिर एको परमानंद का अस्तित्व रह जाता है, जो कभी फ़नां नहीं होता।
सतगुरु साहिबान जी फरमाते हैं, जो भगत सतगुरु प्रेम में मग्न हुए, सतगुरु चरणों के बौरे हुए, उन्हें प्यारे सतगुरु के सिवा अन्य कुछ भी नहीं भाता। सतगुरु प्यारल के बिन न चैन और ना ही तन की कोई सुध होती है। साधसंगत जी! यह भी सत्य है कि जिन्होनें पूरण सतगुरू़ प्रेम वियोग की पीड़ा का स्वाद नहीं चखा, उनकी आतम को फिर विरह का घाव नहीं लगता।
मोह दिन और रात नाहीं, निंद भूख नहीं लागै
प्यारा मुखड़ा दरस तू देवो, मैं गुनाह अति बहु भारी
सांईजन ने फरमाया कि सतगुरु प्यारे की संगति, सेवा, सिमरन, ध्यान, विरह-प्रेम में लीन शिष्य का एको आधार, आसरा सतगुरु हो जाता है, जो आत्माएं हरिराया सतगुरू का आश्रय पाकर भी वचनों पर अमल नहीं करते वे मंद-तंद में पड़े भटकते ही रहते हैं। जो जीव सतगुरू हुकु़म में सत्-सत् कर रहते हैं वही सौभाग्यशाली, गुरूमुख हैं। ऊँचा सच्चा प्रेम तो उन प्रेमी गुरुमुख शिष्यों को, पूरे सतगुरु बाबल महबूब पर आश्रित ही कर देता है, वह प्रेम उनके अंदर सब्र, संतोष, विश्वास, निष्ठा, रज़ा, भाणे का भाव पैदा करता है, जिससे शिष्य मुरीद, सुख-दुख को, उस प्यारे बाबल की दात समझ, खुशी-खुशी स्वीकार करता है और हर हाल में अपना ध्यान-तसव्वुर, हरिराया सतगुरू प्यारे के प्रेम में रमाए रहता है। वह ऐसी सुखद सीमा तक पहुँच जाता है जहाँ दुनियावी उतार-चढ़ाव उसे डिगा नहीं पाते और वह दुनियावी दुख-कष्ट सहने की अपार शक्ति पा लेता है। यही कारण है कि जब मनसूर को फांसी दी गई, उसने हंस-हंस कर स्वीकार कऱ लिया। गुरु अर्जुनदेव जी को जब तपते तवे पर बैठाया गया तो उन्होंने उसे मालिक का भाणा मान सहर्ष स्वीकार किया ‘‘तेरा भाणा मीठा लागे-2’’ और बलिहार हो गए। सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी ने, सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के श्रीचरणों में पूर्ण अकीदा रख, उनकी वचन आज्ञा शिरोधार्य कर, अपने तन की सुध छोड़, बिना कोई परवाह किए पुल से नीचे नदी में कूद गए। अपने प्रियतम सतगुरु बाबा माधवशाह साहिब जी के हुकुम आज्ञा में रह, हृदय में सतगुरु प्रेम को बिठा पारब्रम्ह रूप ही हो गए।
हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ब्रम्ह बाल भगत रूप में सतगुरु सेवा में पूर्ण निष्ठा से रमे रहते, अनेक कष्ट-कसालों एवं लोकमत, तानों-बानों की परवाह न करते हुए सदैव सतगुरु प्रेम में मस्त रहते, आंतरिक तप भजन की आलौकिक साहूकारी परमत्व प्रकाश में परम एको मग्न रहते। फिर आप प्रभु रूप सतगुरु जी ने अपने भजन सिमरन के भंडार को प्रगट कर साधसंगत रूपी नाव रचाई-बसाई; जो प्रेमी भगत पूर्ण प्रेमा भक्ति भाव से उस नाव में सवार हुए, आप पूरण सतगुरु जी उन्हे संग साथ निज लोक यानि परमात्मा के घर ले जाते हैं।
हरे माधव यथार्थ संपूर्ण संतमत वचन उपदेश 33 में हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने एक ज्ञानी जन को फरमाया “बाबा! परमात्मा अकह पारब्रम्ह कोई ज्ञान की बहस का विषय नहीं है, वह अमृत भजन भाव का अनुभव है, इसलिये परमात्मा को केवल ज्ञान गोष्ठी के द्वारा कह पाना, अनुभव कर पाना असंभव ही जानो, वह तो आंतरिक अनुभव भजन का अमृत है, भजन सिमरन के भंडारी ही अनुभूति अनुभव के परम दाते हैं”
सतगुरु से सच्ची लगन प्रीत की मीठी वेदना को गुरु साहिबान जी वाणी में फरमाते हैं, जी आगे-
।। प्यारा मुखड़ा दरस तू देवो, मैं गुनाह अति बहु भारी।।
।। प्रेम मेरा तुम ही जानो, माधव मेरे प्राण सहारे।।
।। नैन टपके घट में भटके, रूप तुम्हारा मैं देखन चाहूँ।।
।। चहुं ओर पुकारा मर्म न जाना, अपना प्रेमी प्यारा मेलो।।
हरे माधव वाणी में प्रेमी रूहें सतगुरु प्रेम, विरह की बड़ी मिठड़ी पुकार अपने प्रियतम बाबल से कर रही है-
प्यारा मुखड़ा दरस तू देवो, मैं गुनाह अति बहु भारी
विरही रूह, सतगुरु दर्शन की आस अपने अंदर बैठाए, वियोग में पुकार उठती है, ऐ मेरे हरिराया सतगुरु जियो! प्रेम मेरा तुम्ही जानो, मेरी विरह वेदना से तो केवल तू ही वाकिफ है, मेरे प्राणों का सहारा, मेरे जीवन का आधार है-
प्रेम मेरा तुम ही जानो, माधव मेरे प्राण सहारे
नैन टपके घट में भटके, रूप तुम्हारा मैं देखन चाहूँ
प्रेमी शिष्य के लिए, यह बड़े दुख संताप की घड़ी है, सतगुरु दर्शन की चाह में वह विरह अगन सागर में तड़प उठता है, जब प्यारे सतगुरु के पावन श्रीदर्शन नसीब नहीं होते तो विरह-वियोग के कारण, दिन क्या, रात क्या, किसी भी क्षण आतम को चैन नहीं मिलता।
पूरे सतगुरु के शिष्य के लिए, इस विरह वेदना को सहन करना बड़ा कठिन होता है, पर इस लगन, प्रीत का त्याग तो सच्चा प्रेमी कभी नहीं करता, संगतां जी! कच्चे घड़े फूटते हैं और इधर-उधर दौड़ते हैं पर सच्चे भगत प्रेमी का निह विश्वास अपने प्रियतम सतगुरु श्री चरणों में दिन-दिन क्षण-क्षण बढ़ता रहता है। मन ही मन, मुर्शिद सतगुरु के आगे प्रार्थना, खुशामदी भी करता रहता है, वियोग का भाव उसे चुभाता है। मुर्शिद का प्यारा मुखड़ा याद कर, वह दर्शन को तड़पता है। हरिराया सतगुरु से प्रेम-विरह में वह शिकवा शिकायत भी करता है, वह कहता है, मैं दुनिया, मन-इन्द्रियों के जाल में भटका-बिगड़ा हुआ अवगुणी था, गुनहगार था तुमने मुझे संवारा। सांई जी अगर मेरे अवगुणों को देखकर, दूर ही करना था, तो मुझे गुनाह ही करने देता, अवगुणी ही रहने देता, तूने मुझे क्यों संवारा? अपने श्री चरणों का इश्क-ए-हक़ीकी का प्रेम प्याला क्यों पिलाया? वह दर्द में सतगुरु को शिकायत भी करता है फिर वह अपनी भूलों के लिए पश्चाताप भी करता है। सांई जी जैसा तुझे भावै।
बस श्री चरणों का प्रेम बना रहे-2,
श्री चरणनन में ठौर देवौ-2
साधसंगत जी! हरिराया सतगुरु मुर्शिद यह भलीभांति जानता है, कि मेरा मुरीद, क्या अनुभव कर रहा है और वह हिदायत भी देता है, कि कौन सा अनुभव काल का फैला जाल है और कौन सा अनुभव परम प्रकाशी नूर से भरा है। प्यारा सतगुरु, दया करूणा कर अपनी वाणी-वचनों द्वारा हमें प्रेम, विरह, ध्यान के हर इक राज-रम्ज़ को समझाता, चिताता है। हाजिरां हुजूर सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी ने परमत्व शहंशाही निजत्व साहिबी, एकत्व रसाई के रंग में रंगकर, परम प्रकाशी भण्डार खोल दिए और अनन्य प्रेम की सिफ़त, अपनी रब्बी वाणियों-वचनों में फरमाई कि सतगुरु चरणन प्रेम का ढंग तो ऊँचा, अजूबा, निराला है और जिसे यह घाव लगा, वह धर्मां, जातियों के दायरों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि जब कमाई वाले हरिराया सतगरु की मेहर निगाह जीव के घट अंतर पड़ी , तो जीव का अंतःकरण पाक़, शुद्ध हुआ और हृदय में विरह-प्रेम का सैलाब, मीठा दर्द उमड़ पड़ा। ऐसा भाव हो गया, कि इस दुख को प्रेमी कैसे बयां करे। जैसे मिश्री पानी में घुल अमृत रूप हो जाती है, वैसे ही प्रेमी रूहें, अपने प्रियतम सतगुरु से प्रेम करते-करते उसी का रूप हो जाती हैं।
उपनिषदों का महावाक्य आया-
न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः क्वपचः प्रियः
भले ही कोई चारों वेदों का जानकार हो, पर यदि उसके अंदर पूरण प्रेम नहीं है, भक्ति नहीं है तो वह मुझे प्रिय नहीं है, परन्तु जो प्रेमी भक्त है, फिर वह अगर मूक भी है तो भी मुझे अति प्रिय है।
ऐ प्यारों! हरिराया सतगुरु के प्रेम विरह का घाव लगना, यह बड़ी कठिन वादी है, और इन्हीं वादियों से गुज़रकर हमारी आत्मा एकत्व की रसाई कर पाती है। विरह भक्ति की अवस्था का पूरा-पूरा फायदा उठाओ, विरह की घड़ी में सतगुरू द्वारा प्राप्त सच्चे नाम का अभ्यास करो, उस शब्द व नाम के अभ्यास में अंतर परम दिव्य आतम आनंद का अनुभव करो। विरह भक्ति द्वारा सतगुरु के अनूप आलेकिक रूप का दर्शन भी सुलभ होगा और सर्गुण साकार अनुपम छवि के मिलाप का भी सुख मिलेगा; इसलिए विरह भक्ती में डूबकर सतगुरू का नाम पुकारो, सतगुरु को हृदय में धारो, सतगुरु का करो भरोसा, और कुछ न करो अफसोसा। ऐसा भाव मन में धारो-
नैन टपके घट में भटके, रूप तुम्हारा मैं देखन चाहूँ
कि सांई जी, आपके दरस बिन हमारा जीवन निष्फल है। सच्चे पातशाह जी! जब हम आपके सुहिणे श्री चरणों से दूर अपने घर-नगर को जाते हैं या जब आपजी जीवों के उद्धार वास्ते परमार्थी यात्राओं पर जाते हैं तब हमारी दशा बड़ी दुखदायी होती है, हम अपने मन को बड़ा समझाते हैं, पर यह हमारा मन कहाँ मानता है, सच्चे पातशाह जी, स्वांसों स्वांस तेरी याद बनी रहती है, तुझे ही पुकारते रहते हैं।
चहुं ओर पुकारा मर्म न जाना, अपना प्रेमी प्यारा मेलो
सांईजी! हम विरही आत्मायें, प्रेम में पुकार करते रहते हैं, आपके दर्शन बिना हमारा मन कहीं नहीं लगता, मन को कितना भी समझाओ भरोसा दो, पर इतने पर भी मन नहीं मानता, नहीं समझता, बाल हठ की तरह दर्शन, दर्शन, दर्शन ही चाहता है, यह मेरा मन कुटीचल (डीठ) है, इसे बस सतगुरु दर्शन चाहिए, बस दर्शन। हे मेरे माधवे! अंतरघट में आपके सुहिणे आलौकिक दरस बक्शो, अलौकिक दरस बक्शो।
प्यारा मुखड़ा दरस तू देवो, मैं गुनाह अति बहु भारी
नैन टपके घट में भटके, रूप तुम्हारा मैं देखन चाहूँ
चहुं ओर पुकारा मर्म न जाना, अपना प्रेमी प्यारा मेलो
परमार्थी राह पर एक सर्वोत्तम ऊँची सच्ची बात है कि बगैर सतगुरु प्रेम प्रीत, भाव भगति के हम देह से आजाद नहीं हो पाते मन की चिंताओं से उबर नहीं सकते, संगतां जी आप देखें कोई इंसां गुज़रे हुए वक्त में की हुई गलतियां को सोचकर तो कोई आगे भविष्य के विषय में चिंता कर चिंतित हो जीवन काटते हैं लेकिन सच्चे गुरुभगतों को तो बस एक ही आसरा, सतगुरु प्रभुजियो का, सतगुरु प्रभुजियो का। उसी के आसरे वह अपने जीवन की धारा को बहने देते है और निर्भय होकर, बेपरवाह होकर जीवन व्यतीत करते है, इसलिए हर पल आनंदित रहते हैं। संगतां जी! सतगुरु प्रभुजियो से प्रेम प्रीत हमें दुनियावी प्रीत भाव (मोह) से न्यारा करती है।
सतगुरु प्रेमी का ध्यान हर पल प्रभु जियो सतगुरु पर टिका रहता है, उसकी पूजा भी उस प्रभुजियो से, उलाहना भी उस प्रभुजियो से, कभी योग विरह वेदना, कभी मीरा शबरी की तरह निच्छल प्रेम भी उसी से, यही उनकी पूजा है। उनका जप वही है, उनका तप वही है, उनका व्रत भी वही और यज्ञ भी वही है। हरिराया सतगुरु के प्रेम रूपी यज्ञ में भगत अपनी अन्य इच्छाओं को स्वाहा कर देता है। उस त्याग से आतम भगत को, अनन्त प्रगट रूप सतगुरु से अन्दर ही अन्दर अविनाशी सुख प्राप्त होता है। याद रखों, उस प्रेमी भगत को जो प्राप्त होता है, वह ना शब्दों के द्वारा कहा, बताया जा सकता है न ही समझाया जा सकता है। जिसने सतगुरु प्रभुजियो के ऐसे प्रेम प्रीत की दात को प्राप्त किया, मानो उसने समाधि के दिव्य अमृत रस को प्राप्त कर लिया। जिनके हृदय में सतगुरु प्रभु का प्रेम भरा है, उन्हे अन्य संसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों में मोह नही रहता। पूरण सतगुरु प्रेम बंदगी से घट अंतर बाड़ी तैयार हो जाती है, जिससे किसी भी मैल विकार का प्रवेश हमारे घट अंदर नही हो पाता है।
One who has a profound love for Lord True Master remains unaffected by worldly attachments & fascinations. Love & devotion for True Master builds a fence around our mind to protect it from vices.
ऐ शिष्य! तू सतगुरु प्रीत प्रेम की भट्ठी में खुद को जला दे, खुदी खुद-ब-खुद उड़ती जाएगी, सतगुरु मुर्शिद महबूब की रहमत से ऐ शिष्य! तुझे मालूम होगा, कि अमृत क्या है, रबियत क्या है?
सतगुरु बाबा नारायणशाह साहिब जी फरमाते, कि सतगुरु के दीद दर्शन करते-करते सतगुरु के दर्शन प्रेम में अगर आप खो नहीं जाते, बंध नहीं जाते, तब तक यह मन बस में नहीं होता, प्रत्यक्ष सतगुरु के दरस प्रेमपूर्वक इकटिक होकर करें जिससे अपने आसपास की सुध ही ना रहे, सतगुरु हरिराया पुरुख के केवल श्री दर्शन करते रहें। पावन श्री दर्शन करते प्रेमी भगत के न्यारे भगवन प्रीतम से नजर न हटा सकने की बेबसी, गहरी सच्ची अनन्य प्रीत है। सच्चा प्रेमी, सतगुरु दरस करते पलक भी नहीं झपकता। साधसंगतों! प्रेमापूर्वक दर्शन करना साची इबादत, साची पूजा ही है।
आपजी कहते हैं, सच्चा प्रेम करने वाला भगत शिष्य बिल्कुल बेबस होता है और सतगुरु के प्रेम में यह बेबसी स्वभाविक है। साहिबान जी समझाते हैं, ऐ प्यारे! दर्शन दीदार, अपने प्रभुवर में पूरी तरह लीन जज़्ब हो जाने का नाम है, पाक आत्मायें अगम पुरुख को देख अगम ही हो गईं। ऐ प्यारों! पूरण सतगुरु के सर्गुण साकार देह स्वरूप के प्रेम से नूरी प्रकाश के दर्शन का आसरा टेक मिलता है, ’’साकार दर्शन, पूरन सतगुरु के दिव्य निरामय स्वरूप से मिलने का सच्चा साधन है-2’’ सतगुरु जी द्वारा बक्शे, सच्चे शबद के भजन ध्यान में रमण करना, जब मन में दिव्य आलोकित परमत्वमय स्वरूप के दर्शनों की तड़प पैदा हो, तो सतगुरु अपना दिव्य नूरी आलोकित परमत्वमय दर्शन शिष्य के घट में बक्श देते हैं, यह भी दिव्य दात माधव दाते की है, लेकिन जीवों के घट अंतर आलोकित परमत्वमय स्वरूप का दर्शन देना न देना, यह दात परम दयाल सतगुरु के हथ, उनकी मौजे विरासत है।
अब संगतों! चाहे शिष्य सतगुरु शरण में हो या अन्य नगरों, शहरों में हों कमाई वाले पूर्ण सतगुरु अपने दिव्य दर्शनों की दात सूक्षम रूप में बक्श देते हैं, कई भगत प्रेमीजन अपना अनुभव बताते हैं कि हमें सतगुरु जी ने इस रूप में या स्वप्न में दरस बक्श हमारे मन की पीड़ा हर ली। यह भी अपने अंदर हम लोकन-अवलोकन कर जांच लें, जितना हम साधसंगत में सतगुरु श्री दर्शन करते हैं, करम बंधनों से मुक्त होते हैं, हमारी भक्ति बढ़ती है, प्रेम बढ़ता है। हमारे मन के भाव अलग, अलग कशिश, अलग भाव, अलग प्रभाव बना रहता है, अब हम इसे जितना पचाते हैं उतना ही श्री दर्शन का सुख माणते हैं, पारब्रम्ह का सुख प्राप्त करते हैं।
साधसंगत जी बड़े ही सहज सरल रूप में हरे माधव यथार्थ संतमत वचन उपदेश 140 में सांईजन ने फरमाया हैं श्रवण मनन करें जी।
बाबा! विद्युत बिजली का तार फ्रिज से जोड़ा जाए तो वह हमें ठण्डक प्रदान करता है, किसी हीटर से जोड़ा जाए तो गर्मी प्रदान करता है, है तो वह एक ही तार। ऐ रब के अंश! उसी प्रकार आप अपने हृदय की तार को यदि संसार माया में आसक्त कर देते हैं। तो वह घोर दुखों का कारण बन जाती है, और अगर रूहों के हृदय की तार हरिराया सतगुरु श्रीचरणों की प्रीत से जुड़ी है, तो वह अंतर शाश्वत अमृत भंडार की शीतलता, साचा सुख देती है, सो अपने हृदय की तार को शाश्वत शीतलता की ओर सतगुरु श्री चरणों से जोड़ें।
सच्चे प्रेमी का हृदय प्रभु रूप सतगुरु के प्रेम में आलौकिक और अजायब सी मस्ती में भरा रहता है। वह अपने सांईजन से कहता है-
प्रेम मेरा तुम ही जानो, माधव मेरे प्राण सहारे
भूखे को भोजन मिला तो स्वाद अनुभव हो पाता है पर जिसने भोजन ही नहीं किया उसे स्वाद का पता कैसे चलेगा? संतमत गुरुमत में शुरूआत इसी प्रेमामय सीढ़ी से होती है, सतगुरु प्रभुजियो से साचा प्रेम रखकर। जिस भगत ने साचा प्रेम रखा, उसका यही भाव रहता है कि न मैं कर्ता हूँ, ना मैं कुछ भोगता हूँ, ना ही मैं सफल हूँ, ना ही मैं असफल, ना मैं जीतता हूँ, न मैं हारता हूँ। सब जो कुछ कराता है, मेरा भगवन्त प्रभुजियो कराता है। मैं कुछ नहीं हूँ, ना ही मेरा कुछ है, मैंने तो सब कुछ तुझे सौंप दिया।
जी सब कुछ तेरा मेरे माधव जी मेरे साहिब जी
सब कुछ तेरा कुछ नाहिं मेरा मेरे दाता सतगुरां
‘‘तेरा कराया सब ये सारा’’-2
दास ईश्वर विनती करत है, जी सब कुछ है तेरा कराया
मेरे हरिराये मेरे पियारे, सब तेरी अकुलाई
सब तेरी कुदरत कुरबाना जी, जी सब कुछ तेरा मेरे माधव जी
ऐ प्रभु जियो की संगतों! यही भाव होने चाहिए, परम संतोष चाहते तो बस यही भाव कि मुझे कुछ नहीं करना, ‘‘जो तू करावै, जो तू करावै, तू करावै तो तेरी मर्जी, ना करावै तो तेरी मर्जी। जहां तू ले चल, जहां तू पहुँचा दे, पहुँचाए तो ठीक, ना पहुँचाए तो भी ठीक। बस अपना सब कुछ, अपनी सारी चिंताए उस माधव प्रभुजियो पर छोड़ दो। प्यारों! जिस अकह प्रभु पर इतना विराटों के विराट लोकों का भार है, जो चंद्र-तारे असंख्य मण्डलों को चलाता है, सृष्टि को चलाता है, सूरज को उगाता-डुबाता है, अनंत सागरों की इतनी विशाल लहरों को बहाता है, तो क्या तुम्हारे मन की, जीवन की अनंत लहरों को वह ना संभालेगा?
इसका अर्थ यह नहीं है कि, तुम लहराओगे नहीं। लहराना तो तुम्हें पड़ेगा अर्थात् कर्म तो तुम्हें करना पड़ेगा, पर ध्यान रहे कर्म को अपना अहंकार न बनाओ। शहंशाह सतगुरु अनुभवी पुरुख हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी समझाते है, अहम की नाव पर संवार मत हो, अहम को सर का मुकुट मत बनने दो। बाबा! अपने दिल आतमखाने में भय भाव का इत्र लगाए रखना, पूरण साधसंगत में, कमाई वाले परम ज्योत सतगुरु की शरण में, उनकी अलौकिक मेहर रहमत को साण्ढण, साण्ढे रखना यानि संभाल के रखना और इसे संभाल के रखने की कला पूरण सतगुरु शरण में सीखो। सदा भय और भाव की याचना पुकार करो। तभी कहा गया-
जिना मन भय, तिना मन भाव
भय से भाव बनता है और भाव से भगति। हरिराया सतगुरु के विरह प्रेम में शिष्य भगत किस तरह पुकार याचना करता है, गुरु साहिबान जी वाणी में बयां करते हैं, जी आगे-
।। मेरा कोई तुझ बिन नाहीं, जिस स्यूं मैं करूं पुकारा।।
।। मेरे प्यारे कब मिलोगे, विरह सतावै दरद बहु भावै।।
।। कहे नारायणशाह सुनहो प्यारों, सतगुरु प्रेम घट–घट छाया।।
संगता जी! प्रेम पूर्ण स्वतंत्र है। भगत जो चाहे करे, वह जो चाहे कहे, सतगुरु से सच्चा प्रेम ही अनमोल और बच्चों के समान प्यारे बोल कहलवाता है, शिष्य भगत उल्हाना देता अपने सतगुरु बाबल को। भगत कहता है कि जिस तरह एक बालक जिसका ध्यान खेल-कूद में है और अध्यापक द्वारा पीटे जाने पर भी जिसकी पढ़ता में रूचि ही नहीं होती, वह पढ़ ही नहीं। उसी तरह मुझे भी अपने सतगुरु के प्रेम और मिलाप के बगैर कोई दूसरी बात अच्छी नहीं लगती। मेरे माता-पिता मित्र संबंधी भी मुझे ताने-बाने देते हैं कि ये कैसा रोग है परन्तु उन्हें क्या मालूम मैंने बहुत प्रयत्नों के बाद अपने सतगुरू से निह प्रीत (अखियां) लगाई हैं, मन में सतगुरु प्रीत भरी है। इसलिये मैं अब इस सतगुरु प्रीत प्रेम पाठ के अलावा और कुछ नहीं पढ़ सकता। मैं अजीब दुविधा में हूँ। मैं अपने सतगुरु को बिसार नहीं सकता और सतगुरु है कि मेरी ओर ध्यान ही नहीं देते। हे सच्चे पातशाह! यदि आपको हमारी तरह प्रेम का रोग लग जाये, तभी आप हमारे साथ न्याय कर सकोगे अन्यथा नहीं। हमारी अवस्था को समझकर, अब हम पर तरस खाओ और हमें श्री दर्शनों से निहाल करो। हे हरे माधव प्रभु दाता! तुम बिन यह जीवन विष से भी अधिक कड़वा लगता है, तुम्हारे सिवा मेरा जीवन व्यर्थ है। मुझे दुनिया की कोई वस्तु पदार्थ नहीं चाहिए, “सांई जी बस आपका ही प्रेम चाहिए”-2, क्योंकि आप मेरे हो, मैं आपका हूँ।-2
मेरा कोई तुझ बिन नाहीं, जिस स्यूं मैं करूं पुकारा
हे सतगुरु! मैं आपको पत्र लिखता हूँ, आप उसका भी जवाब नहीं देते, सारा संसार जैसे खाने को दौड़ता है, मैंने बड़े-बड़े ज्योतिषियों से पूछा, कि मेरा अपने सतगुरु से कब मिलाप होगा, कब दर्शन होगा सांई जी का। जो जो समय उन्होंने बताया सब बीत गया, पर श्रीदर्शन सुख ना मिला। अब आप ही बताओ सांई जी क्या यह हमारा दुर्भाग्य है या उनकी गणित ठीक नहीं है।
अब तेरे बिन इक पल ना बीते बाबा
किस्मत ने है तुझसे मिलाया, पूरन सतगुरु अब है पाया
सदियों से तुझको ही ढूंढते थे बाबा, ओ हरे माधव बाबा
हे सच्चे पातशाह! यह आंखें सदा नीर बहाती रहती है। हम सोचते हैं कि शायद स्वप्न में ही दर्शन हो जायें पर अब तो नींद भी हमारी शत्रु बन गई है। हे सच्चे पातशाह! रो-रोकर आँखां का नीर भी समाप्त हो गया है। परन्तु पता नहीं किस शत्रु ने कौन सा ऐसा जादू कर दिया है, कि आप हमारी हालत पर ध्यान नहीं देते। हे सच्चे पातशाह! आप ही बतायें कि आपसे प्रीत करने पर हमें लोकमत के तानों, आंसुओं और विरह के कांटो के छत्र के सिवा क्या मिला! अब हमारी यही प्रार्थना है, सांई जी आपके श्री चरणों में, या तो हमें भी अपने पास बुला लो या आप स्वयं आकर पावन दर्शन देकर निहाल करो। ऐ हरे माधव प्रभु के प्यारों पपीहे जैसी तड़प शिष्य आतम में होनी चाहिए। प्रभु सतगुरु के दर्शन की प्रबल इच्छा नित नेम वाली कड़ी भी शिष्य आतम को गाढ़ी करनी चाहिए। भजन सिमरन के भंडारी हाजिरां हुजूर सतगुरु साहिबान जी ने अपने दिव्य भजन मुख से हरे माधव प्रभुमय प्रीतमय वाणी में फरमाया-
मन में प्रीत लगी, मोहे सतगुरु चरणन की
दर्शन बिन मोहे फीका लागै, विरह अगन में तड़पूं जी
सुनहो माधव प्यारे, प्रीत लगी मोहे सतगुरु चरणन की
दास ईश्वर मस्ताने भए, जो हरे माधव न बिसरे जी
सतगुरु प्रभु माधव दाता, मोहे अवर लिव न लागै जी
ऐ बंदिया! पूरण सतगुरु चरणों में इतना प्रगाढ़ प्रेम हो कि एक क्षण भी वियोग सहन न हो। हरिराया सतगुरु के इश्क में भीग कर अगोचर न्यारे हरे माधव परमात्मा के प्रेम का अनुभव करें।
O Being! Your love for your True Master should be such that separation from Him even for a minute becomes unbearable. Perceive the love of Supreme Hare Madhav Lord by drenching in the love of Accomplished True Master.
हरे माधव अमृत वचन भांगा साखी उपदेश 354 में जि़क्र आया, हाजि़रां हुज़ूर साहिबान जी, प्रभु की प्यारी रूहों को, मनमाया गफलत में सोई रूहों को जागृत करने के लिए, अनेक दुर्गम कस्बों, स्थानों पर भी साधसंगत का दीवान सजाते हैं, सत्संगो का आयेजन करते हैं, जिसका उद्देश्य, परमार्थ भक्ति के फल को, हरे माधव यथार्थ संतमत उपदेशों, वचन-वाणियों को सर्वसांझी रूहों तक पहुँचाना एवं जन्मों-जन्मों से सुत्ती रूहों को जगाना है। आज भारत के अनेक नगरों-कस्बों में और विदेशों में भी आप साहिबान जी हरे माधव यथार्थ परमार्थ संतमत, भक्ति की ज्योति को जगाने के लिए परमार्थी यात्राएं करते हैं, उन्ही परमार्थी यात्राओं में से सतगुरु मेहर रहमत का जिक्र श्रवण कर भाव भगति को गाढ़ा करें जी। फरवरी माह, सन् 2013 में जब हाजिरां हुजूर साहिबान जी गोंदिया महाराष्ट्र की परमार्थी यात्रा से माधवनगर कटनी लौट रहे, मार्ग में आपजी बालाघाट जिले के एक गाँव कोचेवाही के प्रेमी भगतों ने विनय अर्ज की, हे हरे माधव बाबा जी! अपने पावन श्री चरण कमलों से हमारे गांव को पावन करें, हमारे गांव पधारें। गांववासी राह में अखियाँ बिछाये खड़े हैं। उन संगतों में एक प्रेमी भगत, जो बीच राह में गाँव के रहवासी एवं प्रबुद्धजनों के साथ, आप सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिब जी के दरस की चाह में बड़ी ही आतुरता से आँखें बिछाऐ बैठा था, आपजी का परमार्थी काफिला वहाँ पहुँचा, पुष्प वर्षा करते हुए, हरे माधव, हरे माधव के गुंजायमान से पूरा गाँव झूम उठा, प्रेमाभक्ति में डूबे हुए गाँववासी, वह भगत बंदा भावभक्ति में सराबोर दर्शनकर, अश्रुधारा बहाए, श्री चरणों में आकर पुष्प वर्षा की और आप सतगुरु बाबा ईश्वरशाह साहिबान जी से विनय की, कि “गुरु महाराज जी, मुझ गरीब की झोपड़ी में पधारें”, वह बारंबार हथजोड़ बस यही विनय पुकार कर रहा था कि मालिकां जी मेरी झोपड़ी को अपने श्रीचरणों से पावन करें। उस गुरुमुख भोले भगत बंदे का प्यार प्रेम निह देख, गुरुमहराज जी रीझ गए-
भगत तेरे मन भावन्दे, भगत तेरे मन भावन्दे
तू भगतन का, भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
संगतां जी उस प्रेमी बंदे का सच्चा प्रेम परवान हुआ।
गुरुवाणी में भी प्रेम के मीठे बोल आए-
प्रेम ठगउरी पाइ रिझाइ, गोविन्द मन मोहिआ जीउ
संतन के परसादि अगाधि, कंठे लगि सोहिआ जीउ
सांई जन ने सेवकों से उस भगत की झोपड़ी की ओर चलने का आदेश फरमाया, वह बंदा बड़ा ही गद-गद हो उठा। जब आप साहिबान जी उनकी झोपड़ी में पधारे, हथजोड़ पूरा परिवार प्रेम में मगन हो श्री दर्शन इक टिक हो किये जा रहा, सभी की आंखों से आंसुओं की गंग बह रही, भगत वत्सल गुरु महाराज जी भी उस भगत की झोपड़ी में खड़े हैं, उन सभी पर करूणा, वात्सल्य भरी निगाह कर रहे, आप गुरु महाराज जी को खड़े देख, उन्हें ध्यान आया कि हमारी झोपड़ी में ना तो साफ सुथरा बिछौना है ना ही तख्त है। पूरा परिवार रोते हुए नमन वंदन कर कहने लगा, सतगुरु बाबाजी हम आपजी को कहाँ बिठाऐं, हमारे पास तो एक साफ चादर भी नहीं, हम बड़े गरीब हैं, वे हथ जोड़ रोने लगे। आप भगत वत्सल गुरु महाराज जी फरमाये, भगतां जी! इतना विचलित ना होंवे, आपके दिल में, हृदय में प्रेमाभक्ति है, यही तो ऊँचा सांचा धन है। सांईजन ने प्रेमापूर्वक उस भगत का हाथ पकड़ फरमाया, भगतां जी, भक्तिवान का घर, झोपड़ी भी वैकुण्ठ के समान है। यह वचन सुन पूरा परिवार खुशी से रोए जा रहा, उस वक्त आप गुरु महाराज जी ने देखा, उनके परिवार का बुजुर्ग वहाँ पर पड़ी हुई एक पुरानी फटी मैली चादर को छिपा रहे हैं, आपजी ने मुस्कराते हुए कहा, बड़े सयाने हैं आप, इतनी सुंदर, मखमली रेशमी चादर को छिपाकर रखते हो। आपजी ने कहा, यही रेशमी चादर बिछाऐं, वे डरे सहमें चादर बिछाने लगे एवं प्रेम प्यार में ज़ार-ज़ार रोए जा रहे थे। भगतवत्सल सांईजन स्नेह ममत्वमयी, प्रेमामयी दृष्टि से सभी को निहार, उस प्रेम सत्कार वाले श्री आसन पर विराजमान हुए।
संगतां जी! हरे माधव वाणी में आया-
भगत तेरे मन भावंदे, भगत तेरे मन भावंदे
तू भगतन का भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
कहे माधवशाह सुनहो रे प्यारों, भगतन का सतगुरु दाता प्यारा
भगतन पाया तेरे भगत का भण्डारा, तिन भगतन का तू एको प्यारा
ऐ हरे माधव प्रभु की अंशी आत्माओं! हरिराया सतगुरु को भगतिवान हृदय वाले शिष्य अति प्यारे हैं, कहा-
भगत तेरे मन भावंदे, भगत तेरे मन भावंदे
तू भगतन का भगत तुम्हारे, मेरे प्रीतम प्राण आधारे
संगतां जी! गर्मी का समय था, आप गुरु महराज जी ने फरमाया, प्यारे! मठा बनाकर लाओ और जो भोजन में बनवाया है, वो भी ले आओ, वह बंदा बाबाजी की आज्ञानुसार रसोईघर में गया, उसने वह सब पहले ही बना रखा था कि गुरु महाराज जी को भोग लगाऊगाँ, लेकिन संकोच लाज वश, वह रूखा-सूखा भोजन सम्मुख नहीं ला रहा था, बस ज़ारों ज़ार रोए जा रहा था।
आपजी ने एक सेवादार को वचन फरमाए, जाओ अंदर से भोजन एवं मठा ले आओ, जो है वही ले आओ, छिपाना नहीं, प्रेम से दौड़े-दौड़े वह बंदा दीनता अजीजी से, जो भोजन रूखा-सूखा तैयार था एवं मठा भी श्री चरणों में लाया। तब आप साहिबानों ने बंदे से कहा, भगत जी! भजन भी गाओ, जो आतम का निज भोजन है। वह बंदा प्रेम भाव में सतगुरु श्री चरणों में हथजोड़ बैठ यह राग गा उठा।
प्रभु प्रेम बनाए रखना, चरणों से लगाए रखना-2
इक आस तुम्हारी है, विश्वास तुम्हारा है-2
तेरा ही भरोसा है, तेरा ही सहारा है
प्रभु प्रेम बनाए रखना, चरणों से लगाए रखना…..
प्रेम का भूखा सारा जहां है, तुझ बिन सांचा प्रेम कहां है
तू प्रेम का ठाकुर है, तेरी महिमा न्यारी है-2
इसे सब पर लुटा रहा, तेरी दातारी है
प्रभु प्रेम बनाए रखना, चरणों से लगाए रखना…..
चरण शरण में हमको निभाना, सर्वस्व अपना तुमको ही माना
भक्ति का दाता तू, घट–घट का ज्ञाता तू-2
हम तो इतना जाने, सबका भाग्य विधाता तू-2
प्रभु प्रेम बनाए रखना, चरणों से लगाए रखना…..
आप साहिबानों ने वही दो मोटी-मोटी रोटियां खाई और मठा भी पिया एवं सभी को खाने के लिए कहा, लेकिन वहीं खड़ा एक सेवक, मन ही मन सोचने लगा, कि रोटियां इतनी कड़क हैं और साहिबान जी भोजन बहुत कम एवं तरल खाते हैं, आज इतनी भारी रोटियां और इतना मठा भी आप पी गए, कहीं बेचैनी व देह को तकलीफ न हो, उस सेवक ने माता जी एवं बहन अंजू को ये सारी बातें अपनेपन की कहीं, तो माता जी एवं बहन अंजू ने भी कहा, ‘‘सतगुरु साहिबान जी के ये खेल भगत-भगवंत के निराले होते हैं, ये भगत एवं भगवंत के प्रेम की लीला हैं। इस प्रेमा भाव भगति में सतगुरु भगवंत भगत के प्रेम में बंध जाते हैं। भगत वत्सल सांईजन प्रेमी भगतों की पुकार सुन, उन पर मेहर करूणा बरसाते हैं, उन्हें भगति का भण्डार बक्श देते हैं, ऐसे प्रेमी हृदय जन उन्हें अति प्यारे हैं। बेशक! आपकी चिन्ता करना वाजिब है। गुरु महाराज जी प्रेमी भगतों को प्रेमा भगति की दात बक्शने, उन्हे साचे दिव्य भाव पथ से जोड़ने वास्ते मेहर कृपा करते हैं। हाँ, हम सब सेवकों का दायित्व भी है कि हमें अपने हरिराया सतगुरु की देह का ख्याल अवश्य रखना है, क्यांकि परम मौज के ठाकुर सांईजन को अपनी देह की तनिक भी सुध नहीं रहती। सदा-सदा, हर पल जीव उद्धार की अनवरत मेहर कृपा करते हैं। सांईजन प्रेमभाव के दाता गोसांई हैं, भगतों के प्राण आधारे हैं।’’ आप सब भी श्रीचरण कमलों में प्रेम भाव पूरा रखें जी संगतों। कुछ समय पश्चात वहाँ से संगतें बाहर आईं और आप साहिबान जी का आगे की ओर काफिला बढ़ा। बीच जंगल में वहाँ बड़ा मनोरम नज़ारा देख, आपजी ने सभी सेवकों को गाडि़यां रोकने का आदेश दिया और सेवकों से फरमाए, आप सभी चिंतित हैं लेकिन आप सभी ने देखा उस प्रेमी भगत दीन गोले का श्री चरणों से अगाध प्रेम। उसके दिल में नम्रता और शुद्ध भाव था, यदि उस शुद्ध भाव, सत्कार भाव वाले भगत प्रेमी की झोपड़ी में न जाते, भोग न लगाते तो उस भगत का प्रेम टूटता, प्रेम दब जाता। जब भगति भाव का शुद्ध रूहानी प्रेम हो, तो छत्तीस प्रकार के व्यंजन या रूखे-सूखे पदार्थों का महत्व नहीं है।
हरे माधव प्रभु की प्यारी संगतों! भगत वत्सल, करूणा निधी प्रीतवान समरथ सतगुरु की अपार महिमा है, आप साहिबानों ने प्रभुमय भजन मुख से समत्व प्रेम प्रीत भाव की यह वाणी फरमाई-
जिन मन प्रेम है रे भाई, तिनका मर्म न जाने कोई
प्रीति जिस मन होवे भाई, सो हरि से प्रीति लाई
गुरु के शबद से होवे प्रकाशा, अंतर माहिं होवे अनंदा
कहे दास ईश्वर ऐसे प्रेमी जन मेलो, जिस ये है प्रीति धारी-2
सांईजन ने प्रेमा भाव के वचन बक्शे, सतगुरु भक्ति, सतगुरु प्रेम, भगत भगवंत का यह शुद्ध भावमय रूहानी खेल है, बाबा यह अवस्था समत्व भक्ति योग की है, अगर इसी शुद्ध प्रेमामय भाव से रूखे-सूखे, कड़वे खट्टे पदार्थ मिल जाए, तन को कष्ट भी मिले तो भी कष्ट की बात नहीं होती क्योंकि कष्ट तो देह को है पर आतम में परम आनंद है। सभी सेवकजन यह वचन सुन रोने लगे, हथजोड़ विनय की, मालिकां जी! दया करें, दया करें। आप सांईजन ने मंद-मंद मुस्कुराकर आगे की ओर चलने का हुक्म फरमाया।
संगता जी, इस राह में तो सतगुरु मालिक जी, केवल और केवल प्रेम भाव के भूखे हैं, धन या अन्य पदारथों के नहीं।
प्रेम के तुम हो भूखे सांई, तुम हो भाव के दाता गोसांई
सदा सदा प्रेम का अमृत जो चाखे, तिन भगतन का तू एको प्यारा
दास ईश्वर विनती करे इह, सतगुरु दाता प्रेमी जन मेलो
धूल ताकी जर जर जीवां, चरण कमल तेरे धोइ धोइ पीवां
ऐ हरे माधव प्रभु की अंशी आत्माओं! कमाई वाले भजन सिमरन के भण्डारी सतगुरु की लगन भगति से हृदय की बंजर जमीन पर, रंग बिरंगी भाव भगति के गुल खिल उठेंगे, भाव भगति से मन, बुद्धि और चित्त को आत्मिक खुशी मिलेगी, विचार, निर्मल और अंतरमुखी होंगे। ऐ प्यारों! सच्चे दिल से सतगुरु प्रेमा लगन भगति को धारण करो, यही अनुपम प्रेमामय तप है। हर पल विनय पुकार, प्रेमा भगति की करो, सतगुरु प्रेमाभगति से मनमाया मोह के जाल हटेंगे, तंदे छूटेंगे फिर संसार से उपराम हो सतगुरु श्रीचरणों की भाव भगति में हर पल भीगे रहना, सतगुरु श्रीचरणों की भगति तुझे निज हरे माधव अगोचर प्रभु की प्राप्ति का सुखद सरल मारग देगी।
ऐ रब के अंश! एक परमात्मा वह है जिसने जन्म-मरण का चक्रव्यूह रचा पर उसे भेदने की युक्ति नहीं दी। एक जीवनमुक्त परमात्मा वह है जो जीवात्मा को अजन्मा कर देता है, और वह है, भजन सिमरन के भंडारी दातार परमत्वमय हरिराया सतगुरु, जो अनवरत अपनी रहमत का अमृत अनेकों रूपों में जीवों पर बरसाता ही रहता है, यह उनकी परमत्व मौज है। परमत्वमय सतगुरु कभी मौन हो नूरी निगाह से, कभी प्यारे बोल बोलकर, कभी झिड़प से, कभी मंजुल लीलाऐं कर, अपने प्रभुमय मुख से रब्बी वचनों-वाणियों से सतगुरु भक्ति की दात बक्श, सतगुरु नाम शबद अभ्यास बक्श, सेवा बक्शीश कर अंतर्मुखी परम आलोकित युक्ति से जीवों को माया के अंध फंदों से निकाल परम प्रकाश के अमृत से सराबोर कर देते हैं। ऐसे परम आलोकित हरिराया सतगुरु की मंगल शरणी पाकर, हर क्षण अनंत अमृत आंनद मनाना, यही सतगुरु पर्व का महातम है। आज के इस पावन पर्व पर अपने भगतवत्सल गुरु महाराज जी से हथजोड़ झोली फैला यह विनय पुकार करें।
हे प्रभुजियो! हम सभी संगतों की आपके श्रीचरणों में यही पुकार है, हमें भी प्रेमा भक्ति का गहरा घाव बक्श। हे मेरे सतगुरु! तेरी चरण छांव में जीवन का साचा सुख समाया है, आपके सुहणें प्रेमामयी आलौकिक श्री दर्शनों से मन के सारे दुख संताप दूर हो जाते हैं, बस यही अरदास पुकार है कि हमें अपना बालक जान सदैव प्रेम, प्रीत की डोर से बांधे रखें, हमें और कुछ नहीं चाहिए, हमारे हृदय घट में प्रेमाभक्ति की चाह बक्श, श्रीचरणों की सेवा का भौंरा बना। मेरे सतगुरु जी मेरे माधव जी।
।। मेरे प्यारे कब मिलोगे, विरह सतावै दरद बहु भावै ।।
।। कहे नारायणशाह सुनहो प्यारों, सतगुरु प्रेम घट–घट छाया ।।
हरे माधव हरे माधव हरे माधव